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कमलाप्रसाद - 'अच्छा, मैं ही झूठा सही, इसमें झगड़ा काहे का, थोड़े दिनों में आपकी कलई खुल जाएगी। आप जैसे सरल जीव संसार में न होते तो ऐसे धूर्तों की थैलियाँ कौन भरता?'
देवकी - 'बस चुप भी रहो। ऐसी बातें मुँह से निकालते तुम्हें शर्म नहीं आती? कहीं प्रेमा के सामने ऐसी बे-सिर-पैर की बातें न करने लगना। याद है, तुमने एक बार अमृतराय को झूठा कहा था तो उसने तीन दिन तक खाना नहीं खाया था।'
कमलाप्रसाद - 'यहाँ इन बातों से नहीं डरते। लगी-लिपटी बातें करना भाता ही नहीं। कहूँगा सत्य ही, चाहे किसी को अच्छा लगे या बुरा। वह हमारा अपमान करते हैं, तो हम उनकी पूजा न करेंगे। आखिर वह हमारे कौन होते हैं, जो हम उनकी करतूतों पर परदा डालें? मैं तो उन्हें इतना बदनाम करूँगा कि वह शहर में किसी को मुँह न दिखा सकेंगे।'
यह कहता हुआ कमलाप्रसाद चला गया। उसी समय प्रेमा ने कमरे में क़दम रखा। उसकी पलकें भीगी हुई थीं, मानो अभी रोती रही हो। उसका कोमल गात ऐसा कृश हो गया था, मानो किसी हास्य की प्रतिध्वनि हो, मुख किसी वियोगिनी की पूर्वस्मृति की भाँति मलिन और उदास था। उसने आते ही कहा - 'दादाजी, आप जरा बाबू दाननाथ को बुला कर समझा दें, वह क्यों जीजा जी पर झूठा आक्षेप करते फिरते हैं।'
बदरीप्रसाद ने विस्मित हो कर कहा - 'दाननाथ! वह भला क्यों अमृतराय पर आक्षेप करने लगा। उससे जैसे मैत्री है, वैसी तो मैंने और कहीं देखी नहीं।'
प्रेमा - 'विश्वास तो मुझे भी नहीं आता, पर भैया जी ही कह रहे हैं। वनिता-आश्रम खोलने का तो जीजा जी का बहुत दिनों से विचार था, कई बार मुझसे उसके विषय में बातें हो चुकी हैं। लेकिन बाबू दाननाथ अब यह कहते फिरते हैं कि वह इस बहाने से रुपए जमा करके जमींदारी लेना चाहते हैं।'
बदरीप्रसाद - 'कमलाप्रसाद कहते थे?'
प्रेमा - 'हाँ, वही तो कहते थे। दाननाथ ने द्वेष-वश कहा हो, तो आश्चर्य ही क्या आप जरा उन्हें बुला कर पूछें।'
बदरीप्रसाद - 'कमलाप्रसाद झूठ बोल रहा है, सरासर झूठ! दानू को मैं खूब जानता हूँ। उसका-सा सज्जन बहुत कम मैंने देखा है। मुझे तो विश्वास है कि आज अमृतराय के हित के लिए प्राण देने का अवसर आ जाए, तो दानू शौक़ से प्राण दे देगा। आदमी क्या हीरा है। मुझसे जब मिलता है, बड़ी नम्रता से चरण छू लेता है।'
देवकी - 'कितना हँसमुख है। मैंने तो उसे जब देखा हँसते ही देखा। बिल्कुल बालकों का स्वभाव है। उसकी माता रोया करती है कि मैं मर जाऊँगी, तो दानू को कौन खिला कर सुलाएगा। दिन भर भूखा बैठा रहे, पर खाना न माँगेगा और अगर कोई बुला-बुला कर खिलाए, तो सारा दिन खाता रहेगा। बड़ा सरल स्वभाव है, अभिमान तो छू नहीं गया।
बदरीप्रसाद - 'अबकी डॉक्टर हो जाएगा।
लाला बदरीप्रसाद उन आदमियों में थे, जो दुविधा में नहीं रहना चाहते थे, किसी-न-किसी निश्चय पर पहुँच जाना, उनके चित्त की शांति के लिए आवश्यक है। दाननाथ के पत्र का ज़िक्र करने का ऐसा अच्छा अवसर पा कर वह अपने को संवरण न कर सके बोले - 'यह देखो प्रेमा, उन्होंने अभी-अभी यह पत्र भेजा है। मैं तुमसे इसकी चर्चा करने जा ही रहा था कि तुम खुद आ गईं।'
पत्र का आशय क्या है, प्रेमा इसे तुरंत ताड़ गई। उसका हृदय ज़ोर से धड़कने लगा। उसने काँपते हुए हाथों से पत्र ले लिया पर कैसा रहस्य! लिखावट तो साफ़ अमृतराय की है। उसकी आँखें भर आईं। लिखावट पर यह लिपि देख कर एक दिन उसका हृदय कितना फूल उठता था। पर आज! वही लिपि उसकी आँखों में काँटों की भाँति चुभने लगी। एक-एक अक्षर, बिच्छू की भाँति हृदय में डंक मारने लगा। उसने पत्र निकाल कर देखा - वही लिपि थी, वही चिर-परिचित सुंदर स्पष्ट लिपि, जो मानसिक शांति की द्योतक होती है। पत्र का आशय वही था, जो प्रेमा ने समझा था। वह इसके लिए पहले ही से तैयार थी। उसको निश्चय था कि दाननाथ इस अवसर पर न चूकेंगे। उसने इस पत्र का जवाब भी पहले ही से सोच रखा था, धन्यवाद के साथ साफ़ इनकार। पर यह पत्र अमृतराय की कलम से निकलेगा, इसकी संभावना ही उसकी कल्पना से बाहर थी। अमृतराय इतने हृदय-शून्य हैं, इसका उसे गुमान भी न हो सकता था। वही हृदय जो अमृतराय के साथ विपत्ति के कठोरतम आघात और बाधाओं की दुस्सह यातनाएँ सहन करने को तैयार था, इस अवहेलना की ठेस को न सह सका। वह अतुल प्रेम, वह असीम भक्ति जो प्रेमा ने उसमें बरसों से संचित कर रखी थी, एक दीर्घ शीतल विश्वास के रूप में निकल गई। उसे ऐसा जान पड़ा मानो उसके संपूर्ण अंग शिथिल हो गए हैं, मानो हृदय भी निस्पंद हो गया है, मानो उसका अपनी वाणी पर लेशमात्र भी अधिकार नहीं है। उसके मुख, से ये शब्द निकल पड़े - 'आपकी जो इच्छा हो वह कीजिए, मुझे सब स्वीकार है। वह कहने जा रही थी - जब कुएँ में गिरना है, तो जैसे पक्का वैसे कच्चा, उसमें कोई भेद नहीं। पर जैसे किसी ने उसे सचेत कर दिया। वह तुरंत पत्र को वहीं फेंक कर अपने कमरे में लौट आई और खिड़की के सामने खड़ी हो कर फूट-फूट कर रोने लगी।'
संध्या हो गई थी। आकाश में एक-एक करके तारे निकलते आते थे। प्रेमा के हृदय में भी उसी प्रकार एक-एक करके स्मृतियाँ जागृत होने लगीं। देखते-देखते सारा गगन-मंडल तारों से जगमगा उठा। प्रेमा का हृदयाकाश भी स्मृतियों से आच्छन्न हो गया, पर इन असंख्य तारों से आकाश का अंधकार क्या और भी गहन नहीं हो गया था?